कर्ज हो गया है, जहर खा लिया है…आत्महत्या पर शास्त्र क्या कहते हैं?

by Carbonmedia
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मंगलवार को पंचकूला में घटित एक घटना ने पूरे समाज को झकझोर दिया है. बागेश्वर धाम की कथा सुनने के बाद सात लोगों ने सामूहिक आत्महत्या जैसा भयावह कदम उठा लिया. यह घटना केवल एक पुलिस केस नहीं है, बल्कि धार्मिक दृष्टि से देखें तो यह उचित कदम नहीं है.


हिंदू धार्मिक ग्रंथों में आत्महत्या अच्छा कृत्य नहीं माना गया है. इसे सबसे खराब कृत्यों में से एक माना गया है. आत्महत्या को धर्म विरुद्ध बताया गया है. मनुस्मृति में बताया गया है कि ‘यो हि आत्मानं हिंस्यात्, न स शुद्धो भवेत् क्वचित्.’ यानि जो अपने ही शरीर का नाश करता है, वह कभी शुद्ध या धर्मात्मा नहीं कहा जा सकता.


इसीलिए शास्त्रों में आत्महत्या को पाप, अधर्म और दुखद पुनर्जन्म का कारण माना गया है. यह कदम आत्मा की यात्रा को बाधित करता है और प्रेत योनि, नारकीय अनुभव, तथा अधूरी इच्छाओं के बंधन में डाल देता है.


गरुड़ पुराण में साफ लिखा है ‘आत्मघाती नरकं याति, प्रेतयोनि वशं गतम्.’ इसका अर्थ है कि आत्महत्या करने वाला नरक की प्राप्ति करता है और उसकी आत्मा प्रेत योनि में भटकती रहती है.


गरुड़ पुराण के अनुसार आत्महत्या से मुक्ति नहीं, बल्कि और अधिक क्लेशों का आरंभ होता है. आत्मा अधूरी रहती है और मोक्ष से कोसों दूर चली जाती है.


गीता का ज्ञान क्या कहता है? ‘उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्.’ यानि अपने आत्मबल से स्वयं को उठाओ, स्वयं को कभी भी नीचे मत गिराओ.


शास्त्र और आधुनिक मनोविज्ञान, दोनों कहते हैं कि दुख की घड़ी में संवाद, सहारा और समाधान की आवश्यकता होती है, न कि पलायन की. अध्यात्म मार्गदर्शन है, मोक्ष का साधन है, लेकिन इसका अर्थ कभी भी जीवन से पलायन नहीं है.


मानसिक अवसाद को समझें, नजरअंदाज न करें.
ऐसे लक्षण दिखें तो परिवार, धर्मगुरु या मनोचिकित्सक की मदद लें. शास्त्र सिखाते हैं कि जीवन चाहे जितना कठिन हो, उम्मीद का एक दीपक हमेशा जलता है. आत्महत्या समाधान नहीं, नया संकट है. धर्म का सच्चा अनुसरण जीवन को संवारने में है, समाप्त करने में नहीं.

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