ISRO-NASA Mission: पृथ्वी की सतह की निगरानी, भूकंप और भूस्खलन जैसी आपदाओं का सटीक पूर्वानुमान और पर्यावरणीय बदलावों की विस्तार से जानकारी अब जल्द ही भारत-अमेरिका के संयुक्त अंतरिक्ष मिशन ‘निसार’ (NISAR) के जरिए संभव होगी.नासा और इसरो के इस संयुक्त मिशन की लॉन्चिंग जुलाई 2025 के अंत तक आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा से GSLV रॉकेट के माध्यम से की जाएगी. इसकी कुल लागत करीब 1.5 अरब डॉलर (लगभग 12,500 करोड़ रुपये) है, जिससे यह दुनिया का सबसे महंगा अर्थ इमेजिंग सैटेलाइट बन गया है.
कैसे काम करेगा निसार?निसार सैटेलाइट को खास बनाने वाली इसकी दोहरी आवृत्ति वाली रडार तकनीक है. इसमें दो अलग-अलग रडार लगे हैं-
पहला S-बैंड रडार जिसे ISRO के अहमदाबाद स्थित स्पेस एप्लिकेशन सेंटर (SAC) ने बनाया है.
दूसरा L-बैंड रडार, जिसे NASA की कैलिफोर्निया स्थित जेट प्रपल्शन लैब (JPL) ने तैयार किया है.
दोनों रडार मिलकर पृथ्वी की सतह पर सूक्ष्म बदलाव, ध्रुवीय बर्फ, ग्लेशियरों की गतिविधि, ज्वालामुखी, भूस्खलन और भूकंप जैसे घटनाओं पर नजर रखेंगे. यह तकनीक “सिंथेटिक एपर्चर रडार (SAR)” पर आधारित है.
ISRO-NASA की साझेदारीइस अभूतपूर्व मिशन की नींव 2012 में ISRO और NASA के बीच बातचीत से रखी गई थी. 2014 में दोनों एजेंसियों के बीच आधिकारिक समझौता हुआ, जिसके तहत एक रडार भारत में और दूसरा अमेरिका में तैयार किया जाना तय हुआ. अहमदाबाद के SAC सेंटर के डायरेक्टर डॉ. निलेश देसाई के मुताबिक, यह भारत की तकनीकी प्रगति का प्रतीक है, जिसमें हमारा पहला एक्टिव रडार 2012 में लॉन्च हुआ था और साढ़े चार साल तक सफलतापूर्वक काम करता रहा.
NASA ने भारत की SAR तकनीक से प्रभावित होकर मिलकर नया और अधिक आधुनिक उपग्रह विकसित करने का प्रस्ताव रखा. NASA के पास उस वक्त “स्वीप SAR टेक्नोलॉजी” थी, जो सामान्य SAR के मुकाबले बेहतर रिजॉल्यूशन और कवरेज देती है.
भविष्य की प्राकृतिक आपदाओं का पूर्वानुमान संभवनिसार उपग्रह से भूकंप, भूस्खलन, ग्लेशियरों का पिघलना, समुद्री बदलाव और अन्य पर्यावरणीय गतिविधियों की सटीक निगरानी हो सकेगी. यह सैटेलाइट हर 12 दिन में पृथ्वी के एक ही स्थान की इमेजिंग करेगा, जिससे वैज्ञानिक माइक्रो-लेवल बदलाव तक को पहचान सकेंगे. इससे न केवल भारत और अमेरिका बल्कि पूरी दुनिया को जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक आपदाओं की भविष्यवाणी करने में मदद मिलेगी.
लॉन्च के 1 से 3 महीनों के भीतर यह उपग्रह डेटा देना शुरू कर देगा, जो नीति तय करने, आपदा प्रबंधन और पर्यावरण संरक्षण में उपयोगी साबित होगा.