Prayagraj News: आज से 50 साल पहले, 25 जून 1975 की रात 12:00 बजे देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा की थी. यह आपातकाल 21 मार्च 1977 तक लागू रहा. लोकतंत्र के इस काले अध्याय का असर पूरे देश के साथ प्रयागराज पर भी गहरा पड़ा था.
आपातकाल की घोषणा के अगले ही दिन 26 जून 1975 को प्रयागराज में पहली गिरफ्तारी हुई. जिला अदालत के वरिष्ठ अधिवक्ता नरेंद्र देव पांडेय, भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता डॉ. मुरली मनोहर जोशी और समाजवादी नेता एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री स्व. जनेश्वर मिश्र को गिरफ्तार कर नैनी सेंट्रल जेल भेज दिया गया.
इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले से मचा था सियासी भूचालवरिष्ठ अधिवक्ता नरेंद्र देव पांडेय बताते हैं कि 12 जून 1975 को सुबह 10 बजकर 10 मिनट पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति जगमोहन सिन्हा ने एक ऐतिहासिक निर्णय सुनाया था. उन्होंने रायबरेली सीट से इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध ठहराते हुए छह वर्षों तक चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी थी. इसी फैसले और बिहार में जयप्रकाश नारायण के आंदोलन ने इंदिरा सरकार को हिलाकर रख दिया था.
बाबुओं का शहर भी हो गया था खामोशआपातकाल के बाद प्रयागराज, जिसे बाबुओं का शहर कहा जाता है, पूरी तरह सन्नाटे में डूब गया था. सरकारी अफसर दफ्तरों में काम खत्म कर सीधे घर लौट जाते थे. लंच टाइम में भी बाहर निकलने की हिम्मत नहीं होती थी. शहर की सड़कों पर भारी पुलिस बल तैनात रहता था.
अखबारों पर मजिस्ट्रेट की सेंसरशिपउस दौर में अखबार छपने से पहले मजिस्ट्रेट की अनुमति लेना अनिवार्य था. समाचारों पर पूरी तरह सेंसरशिप लागू थी. जो खबर सरकार को मंजूर होती, वही छपती. बीबीसी लंदन की रेडियो सेवा को लोग दरवाजे बंद कर छिपकर सुनते थे. आकाशवाणी पर सिर्फ सरकार द्वारा फ़िल्टर की गई खबरें सुनाई देती थीं.
छात्र चुप, विरोध गायबयूनिवर्सिटी और कॉलेजों में छात्र पढ़ाई के बाद सीधे घर चले जाते थे. किसी तरह का धरना-प्रदर्शन या सभा तक नहीं होती थी. हर कोई डरा-सहमा था.
20 सूत्रीय कार्यक्रम और जबरन नसबंदीकरीब छह महीने बाद इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी ने 20 सूत्रीय कार्यक्रम की शुरुआत की. इसमें सड़क निर्माण, पेड़ लगाना जैसी बातें थीं, लेकिन साथ ही जबरन नसबंदी कार्यक्रम भी लागू किया गया. ग्राम सेवकों और शिक्षकों को हर माह पांच लोगों की नसबंदी कराना अनिवार्य कर दिया गया. ऐसा न करने पर वेतन भत्ते रोक दिए जाते. कई नाबालिग बच्चों, वृद्धों और यहां तक कि विधवाओं की भी नसबंदी कर दी गई.
इमरजेंसी की कीमत लोकतंत्र ने चुकाईवरिष्ठ अधिवक्ता नरेंद्र देव पांडेय बताते हैं कि इमरजेंसी के दौरान लोगों के मौलिक अधिकार समाप्त कर दिए गए थे. अदालतों तक में याचिका दाखिल करने की अनुमति नहीं थी. विरोध करने वालों को जेल में डाला गया. लोकतंत्र पर यह सबसे बड़ा हमला था जिसकी याद आज भी लोगों के जेहन में जिंदा है.
इमरजेंसी के बाद सन्नाटे में डूब गया था बाबुओं का शहर, सड़कों पर तैनात था पुलिस बल
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