उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे को हालात ने लाया साथ? जानें असल कहानी

by Carbonmedia
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जिस ठाकरे परिवार की एक आवाज पर पूरी मुंबई थम जाती थी, उस परिवार को टूटे हुए करीब 20 साल का वक्त गुजर चुका है. और इन 20 साल के कुछ महीनों को छोड़ दें, तो ये टूटा हुआ, बिखरा हुआ परिवार ऐसा कुछ भी नहीं जोड़ पाया है, जिसे विरासत का हासिल कहा जा सके. लेकिन अब ये परिवार फिर से जुड़ रहा है. उस ओर मुड़ रहा है, जहां से इस परिवार ने मुंबई पर अपनी हुकूमत करनी शुरू की थी. क्योंकि हालात ही ऐसे बन गए हैं कि अब कुछ भी खोने का मतलब सबकुछ खो देना है. 
सत्ता है नहीं, शक्ति है नहीं, पैसे हैं नहीं, रुतबा बचा है और इस बचे हुए रुतबे से ही पहले शक्ति और फिर सत्ता की जो कवायद इन ठाकरे ब्रदर्स ने शुरू की है, क्या वो उस मंजिल तक पहुंच पाएगी कि फिर से ठाकरे परिवार की वही हनक बन जाए, जो बाला साहब ठाकरे के जमाने में थी. या फिर टूटने के बाद जो जोड़ हो रहा है, उसमें गांठें इस कदर पड़ी हुई हैं कि उन्हें सुलझाने में लंबा वक्त लगने वाला है वो इस पूरी कवायद को मटियामेट कर सकता है. 

शिवसेना बाल ठाकरे की बनाई हुई पार्टी है. गुजरात नवनिर्माण आंदोलन के बाद नए बने राज्य महाराष्ट्र के गठन के करीब छह साल बाद जब बाल ठाकरे ने शिवसेना का गठन किया तो मकसद सिर्फ एक था. मराठी मानुष के हक की लड़ाई लड़ना. बाल ठाकरे ने ये लड़ाई बखूबी लड़ी. और इस लड़ाई में 90 के दशक में उनके साझीदार बने उनके ही भतीजे राज ठाकरे, जिन्हें बाल ठाकरे ने खुद अपने हाथ से मराठी मानुष की सियासत का ककहरा पढ़ाया था.

लेकिन जब विरासत सौंपने की बात आई तो बाल ठाकरे का दिल अपने बेटे उद्धव के लिए पसीज गया. क्योंकि तब तक उद्धव भी अपने फोटोग्राफी के शौक को अलविदा कहकर राजनीति में उतर गए थे और खाओ जलेबी फाफड़ा, उद्धव ठाकरे आपणा नारे के जरिए करीब 17 फीसदी गुजराती आबादी के दिलों में उनकी जग बन गई थी. नतीजा ये हुआ कि 2005 में चाचा बाल ठाकरे और भतीजे राज ठाकरे के रास्ते अलग-अलग हो गए.
पार्टी से अलग हुए भतीजे के पास चाचा वाले ही तेवर थे और उसी तेवर पर राज ठाकरे ने एक नई पार्टी बनाई, महाराष्ट्र नव निर्माण सेना यानी कि मनसे. फिर सिलसिला शुरू हुआ सत्ता में हिस्सेदारी का. और रास्ता वही था चुनाव वाला. तो साल 2009 के पहले चुनाव में राज ठाकरे को ठीक-ठाक सीट मिली. विधानसभा की कुल 288 में से 13 सीटें. लेकिन उसके बाद अगले दो चुनाव में महज एक-एक सीट और 2024 के चुनाव में तो राज ठाकरे की पार्टी का खाता भी नहीं खुला. 

ये 2024 का विधानसभा चुनाव इस मायने में भी महत्वपूर्ण था कि राज ठाकरे के बेटे अमित ठाकरे खुद भी चुनावी मैदान में थे, लेकिन उनकी हार ने राज ठाकरे की सियासत पर जो बट्टा लगाया, उसे मिटाने की छटपटाहट राज ठाकरे को फिर उसी चौखट तक लेकर आई है, जिसकी देहरी लांघकर वो 20 साल पहले निकल चुके थे.
भाई से अलग होने के बाद उद्धव भी कुछ कमाल नहीं कर पाए. पिता बाल ठाकरे के जीते जी जो हासिल नहीं हो पाया था, वो तो उनके निधन के बाद उद्धव ने हासिल कर लिया. बन गए महाविकास अघाड़ी के बैनर पर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री. लेकिन इस हासिल की जो कीमत उद्धव ने चुकाई, वो इतनी भारी है कि उसका बोझ उद्धव ठाकरे संभाल ही नहीं पा रहे हैं. 

उद्धव के मुख्यमंत्री बनने के बाद नाराज एकनाथ शिंदे ने पहले पार्टी तोड़ी, फिर उनकी कुर्सी पर कब्जा किया और इस पूरी प्रक्रिया में एकनाथ शिंदे इतने भारी पड़े कि अब पूरी की पूरी पार्टी, बाल ठाकरे का बनाया चुनावी निशान और शिवसेना का कार्यकर्ताओं में सम्मान, सबकुछ एक झटके में एकनाथ शिंदे के पास चला गया. जो बची-खुची कसर थी, वो साल 2024 के विधानसभा चुनाव में तब पूरी हो गई, जब महाराष्ट्र की जनता ने भी उद्धव को खारिज कर बता दिया कि अब शिवसेना का मतलब एकनाथ शिंदे हैं.
ऐसे में उद्धव ठाकरे की हालत भी अपने चचेरे भाई राज ठाकरे से कोई बहुत बेहतर नहीं रह गई है. फर्क सिर्फ इतना सा है कि राज ठाकरे के पास कोई विधायक नहीं है, उद्धव के पास अभी 20 हैं. कुल 288 विधानसभा वाले राज्य में महज 20 विधायक. और जब सियासी हैसियत कमजोर होती है, तो माली हालत के भी कमजोर होने में वक्त नहीं लगता. चुनाव दर चुनाव हुए नुकसान ने इतना तो नुकसान कर ही दिया है कि न सिर्फ वोट बैंक बल्कि असली वाले बैंक के बैलेंस पर भी असर पड़ ही गया है. और ऐसे में जब अपना भाई हाथ बढ़ाकर घर का दरवाजा खटखटा भर दे तो सांकल खुलने में देर नहीं लगती है. तो दरवाजा खुल गया है घर का अपने चचेरे भाई के लिए. लेकिन भाई घर के कितना अंदर दाखिल होगा, ये तो घर का मालिक ही तय करेगा कि भाई ड्राइंग रूम से ही लौट जाएगा या फिर डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाना भी खा पाएगा.

क्योंकि बात सिर्फ भाइयों के एक होने की नहीं है. बात भाइयों के बेटों की भी है. बात उस अगली पीढ़ी की भी है जिसके एक छोर पर अपना पहला ही चुनाव हार चुके अमित ठाकरे हैं तो दूसरे छोर पर दो बार चुनाव जीत चुके आदित्य ठाकरे. एक तो इनको भी होना पड़ेगा, एक दूसरे के सहारे की जरूरत इनको भी पड़ेगी. और अगर ये दोनों भी एक हो जाते हैं तो फिर सवाल भाइयों के लोगों के एक होने का भी तो मौजू हैं. और पेच यहीं फंसा है.
क्योंकि 20 साल का वक्त गुजरा है अकेले-अकेले, दोनों ने बहुत कुछ खोया है. दोनों के लोगों ने बहुत कुछ खोया है और उसकी जो कसक है. वो इतनी जल्दी तो मिटने वाली नहीं है, लेकिन सामने एक ऐसा अवसर है. जो इन सभी पुराने गिले-शिकवों को. सारे नुकसान को, सत्ता के सारे संतुलन को एक झटके में उलट-पलट कर सकता है और वो है एशिया के सबसे महंगे म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन का चुनाव, जिसमें जीत का मतलब 20 साल की नुकसान की एक ही किश्त में भरपाई जैसा है.

ये चुनाव है बृह्नमुंबई नगर पालिका का चुनाव. बीएमसी का, जिसका साल का बजट करीब-करीब 74 हजार करोड़ रुपये का है. इस नगरपालिका की सत्ता हासिल करने का मतलब मुंबई की सत्ता हासिल करना होता है और फिलवक्त ठाकरे परिवार की सबसे बड़ी जरूरत भी वही है. लिहाजा पार्टी भले ही दो हो, दो भाइयों की हो, लेकिन इन्होंने एक होने के लिए उसी पुरानी मराठी मानुष की लड़ाई को हथियार बनाने का फैसला किया है, जिसने बाल ठाकरे को मुंबई का किंग और महाराष्ट्र का किंगमेकर बना दिया था.
लेकिन क्या ये इतना आसान है कि दोनों भाई मिलें, बैठें, बात करें और फिर मुंबई इनके इशारे पर ठीक उसी तरह से बंद होने लगे, जैसे बाल ठाकरे के वक्त में होती थी. इसका जवाब है नहीं, क्योंकि अब वक्त बदल चुका है, हालात बदल चुके हैं, जज्बात बदल चुके हैं. अब महाराष्ट्र की सबसे बड़ी ताकत बीजेपी है, वही बीजेपी, जिसे कभी बाल ठाकरे कलम वाली बाई कहते थे और ये भी कहते थे कि बीजेपी वही करेगी, जो बाल ठाकरे कहेंगे, लेकिन अब न तो बाल ठाकरे हैं जो कहते थे और अब न वो बीजेपी है, जो उनकी सुनती थी. ऐसे में उद्धव और राज की समेकित आवाज भी उस इतिहास को नहीं छू सकती है, जिसके शीर्ष पर बाल ठाकरे कभी रहा करते थे.

बाकी तो हस्तीमल हस्ती का शेर है ही कि गांठ अगर लग जाए तो फिर रिश्तें हो या डोरी लाख करें कोशिश खुलने में वक़्त तो लगता है. रिश्तों की गांठ है. खुलते-खुलते ही खुलेगी, लेकिन इसको खुलने में अगर बीएमसी का चुनाव भी बीत गया तो फिर जख्म इतना गहरा होगा कि वो शायद ही कभी भर पाए.

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