‘ट्रेन सीक्वेंस के लिए 400 लोग साथ शूट करते थे:रमेश सिप्पी बोले- जब भी किसी पार्टी में जाता हूं, शोले की बात जरूर होती है

by Carbonmedia
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15 अगस्त को फिल्म शोले ने 50 साल पूरे किए। डायरेक्टर रमेश सिप्पी की इस मल्टीस्टारर फिल्म की गिनती इंडस्ट्री की आईकॉनिक फिल्मों में की जाती है। आज भी इसके किरदार और उनके डायलॉग्स लोगों के जुबान पर हैं। फिल्म के 50 साल पूरे होने पर डायरेक्टर रमेश सिप्पी ने दैनिक भास्कर से खास बातचीत की है। उन्होंने फिल्म की सफलता का राज, चुनौतीपूर्ण बातें और ट्रेन सीक्वेंस की शूटिंग आदि के बारे में बताया। प्रमुख अंश: फिल्म की कहानी का विचार मन-मस्तिष्क में कब और कैसे आया? देखिए, सलीम-जावेद के पास एक-दो लाइन का आइडिया था। उन्होंने आइडिया सुनाया है, तब ऐसा लगा कि एक्शन एडवेंचर में कहानी डाली जाए, तब एक बेसिक चीज हमें मिल जाएगी और यह एक्शन फिल्म होगी। हम कहानी पर काम करने बैठे, तब बाकी कैरेक्टर उभरकर आ गए और बहुत बढ़िया हो गया। हम खुश थे, पर उस वक्त हमें बिल्कुल पता नहीं था कि 50 साल के बाद भी इसके बारे में चर्चा होगी और डायलॉग दोहराया जाएगा। खैर, सलीम-जावेद के साथ बैठा, तब बात बनते गई। बड़े नैचुरली तरीके से कहानी आगे बढ़ते गई और सलीम-जावेद साहब डायलॉग लिखना शुरू किया था, तब उन्होंने भी 15 दिन में खत्म कर दिया। अच्छा, शूटिंग लोकेशन बेंगलुरु चुना गया, जबकि कहानी की पृष्ठभूमि रामगढ़ गांव की है? यह कैसे? मुझे उस वक्त लगा कि ऐसी बहुत-सी फिल्में वहां बनी हैं। वह इलाका वैसा ही लगेगा, क्योंकि लैंडस्केप और इवेंट जो था, वह अलग था। मतलब कुछ और होना चाहिए। आर्ट डायरेक्टर एम.आर. आचरेकर को साथ लेकर बेंगलुरु लोकेशन देखने गया, तब बाहर से वहां का पथरीला इलाका इंटरेस्टिंग लगा। वहां अंदर जाकर हमने पत्थरों पर चढ़कर देखा, तब डेल वगैरह की जगह ऐसी नजर आई कि इससे बेहतर जगह हमें नहीं मिलेगी। वहीं पर दूसरा इलाका देखा, तब गांव के लिए बहुत सटीक लगा। ऊपर पत्थर पर जाकर देखा, तब तय हुआ कि यहां मकान बनाया जाएगा। सारी जगहों की गहन निगरानी की गई, तब लगा कि यहीं पर शूटिंग होनी चाहिए। लोकेशन देखकर सारी चीजें जेहन में आने लगी। उसकी पॉसिबिलिटी नजर आती रही कि यहां सेटिंग करेंगे तो सब ठीक ठाक हो जाएगा। पूरा सेट बनाने में कितना समय लगा? देखिए, चार-पांच महीने का लंबा वक्त लगा, क्योंकि पूरा विलेज, मार्केट, पानी की टंकी, मंदिर और मस्जिद आदि बनाना था। सही चीज करने में वक्त लगता है। सेट बनाने में मेरे खास अजीज भाई ने साथ दिया, जो सेटिंग के इंचार्ज थे। उन्होंने वहां बैठकर अड्‌डा जमाया और करीब 500 वर्कर के साथ सारा सेट खड़ा किया। हमने शूटिंग शुरू की, तब भी सेट बनाने का काम जारी रहा। यह अजीज भाई, ए.आर. कारदार के असिस्टेंट थे। उनसे कारदार स्टूडियो में मिला करता था। अजीज भाई और आचरेकर के साथ मिलकर सेट खड़ा करने के दौरान हमने भी अपनी राय दी। पहला शॉट अमित जी, जया जी को चाभी लौटाने का था। ट्रेन सीक्वेंस काफी लंबा रहा। इसे फिल्माने में वक्त और चुनौती क्या रही? ट्रेन सीक्वेंस शूट करने में सात सप्ताह लगा था। इसे पनवेल-उरण रेलवे ट्रैक पर शूट किया गया। इसके लिए काफी तैयारियां करनी पड़ी। हमने एक अलग ही ट्रेन हायर की थी, क्योंकि उसमें कोयले का इंजन चाहिए था। शूटिंग के समय थोड़ा आगे-पीछे होता था, क्योंकि उस समय ट्रैक पर एक ट्रेन सुबह पनवेल से उरण जाकर वापस आती थी और दूसरी ट्रेन शाम को जाकर लौटती थी। जब रेलवे की ट्रेन गुजरती थी, तब हम अपनी ट्रेन साइड ट्रैक पर ले लेते थे। वापस गुजरने पर भी साइड करना पड़ता था। इस तरह हमें दिन में चार बार अपनी ट्रेन को साइड करना पड़ता था। ट्रेन के साथ हमने मोटरमैन और 50-60 रेलवे स्टाफ को भी लिया था, क्योंकि ट्रेन से कोई घटना-दुर्घटना हो जाए, उसके लिए पहले से तैयार रहना पड़ता है। इस दौरान रेलवे स्टॉफ और हमारे लोगों को मिलाकर 300 से 400 लोग शूट करते थे। ट्रेन की इतनी ज्यादा फीस तो नहीं थी, लेकिन सात सप्ताह लिए बुक किया, तब एडवांस में बड़ी रकम डिपॉजिट करनी पड़ी थी। यह डिपॉजिट हमें छह महीने बाद वापस मिली। ट्रेन भाड़ा के अलावा रेलवे से जितने लोग शूट पर आए थे, उनके खाने-पीने और रहने का इंतजाम करना था। आज के समय शूटिंग को लेकर कोई चुनौती लगती है, तब वह क्या है? हमने लोकेशन पर पूरा टर्नल बनाया था। वहां दोनों तरफ पथरीला इलाका था, उसे कवर करके टर्नल बना दिया। वह एक पूरा सेट की तरह लग गया। वहां से ट्रेन आती है और टकराती है, तब सारे लोग उड़कर निकलते हैं। अगर प्लानिंग नहीं होगी, तब कैसे शूट करेंगे। वहां पर रेडीमेड थोड़े न मिलता है। उसे क्रिएट करना पड़ता है। यह मूवी मेकिंग का हिस्सा होता है कि इस तरह अगर हो, तब उसे कैसे किया जाए! यहां से एक्शन के लिए अजीज भाई थे और कुछ एक्शन स्टंट और कैमरामैन को इंग्लैंड से बुलाया गया था। बाहर से जो आए थे, वे अंग्रेजी बोलते थे, जबकि हमारे यहां को हिंदी, उर्दू में बात करते थे। ऐसे में मुश्किल हो जाता था, तब 2-4 लोग उन्हें समझाने के लिए रखे गए। 50 साल पीछे मुड़कर देखते हुए, अगर आपको एक चीज बदलनी होती, तब वह क्या होती? क्यों बदलता। जब लोगों को एक चीज इतनी पसंद आई है, वह इतनी अच्छी बन गई है, तब फिर क्या बदलता। स्टार कास्ट को चुनने की कोई यादगार बात भी है? हमें जिन-जिन को चाहिए था, उन-उन को कहानी सुनाया, तब उन्हें पसंद आ गई। सबने साइन किया और काम शुरू हो गया। मौसम, लोकेशन और स्टार कास्ट आदि को लेकर कोई चुनौती रही हो, तब वह क्या रही? मौसम को लेकर हर फिल्म में तकलीफें आती रहती है। कभी बादल चाहिए, तब धूप निकल आती है और धूप चाहिए, तब बादल निकल आते हैं। लेकिन मैं जिद्दी था। मुझे बादल चाहिए होता था, तब बादल आने तक उसका इंतजार करता था। अगर धूप चाहिए थी, तब उसके आने तक का इंतजार करता था। हमेशा मौसम का साथ नहीं मिलता था। पचास साल बाद भी लोगों को डायलॉग और सीन याद हैं, इसकी वजह क्या पाते हैं? बड़े प्यार-मोहब्बत से इन्हें बनवाया। सलीम-जावेद के साथ मिलकर अच्छा बनाया और सब सही फिट हो गया। हर सीन, हर लाइन फिट हो गई, जो लोगों को पसंद आई। स्पेशली गब्बर यानी हमारे अमजद साहब उनकी आवाज, उनका जेस्चर जिस तरह फाइनली हमने उनसे करवाया। बेशक, स्क्रिप्ट अच्छी थी और कुछ करते वक्त अच्छा बन पड़ा। सब मिल-मिलाकर अच्छा बन पड़ा और अब खुश हुए। फिर तो चलता चला गया और रिजल्ट सबके सामने है। ‘शोले’ फिल्म से आपके करियर और व्यक्तिगत जीवन में किस तरह से बदलाव आया? मुझे ऐसा किसी चीज में नहीं लगा। हां, लोगों को फिल्म काफी पसंद आई। मैं जहां भी जाता था, वहां तारीफ होती थी। लोग डायलॉग दोहराते थे और सीन के बारे में बताते थे कि यह तो बड़ा मजेदार रहा। दर्शकों की तारीफ सुनकर लगता था कि मेहनत रंग लाई है। इस तरह देखते-देखते 50 साल गुजर गया। आज भी कहीं पार्टी-फंक्शन में जाता हूं, तब ‘शोले’ की बात जरूर होती है। उस दौर के चर्चित कलाकारों के साथ काम करने का खास अनुभव भी साझा कीजिए? देखिए, अमजद खान नए थे, तो उनको काफी मोल्ड करना पड़ा। उनकी पर्सनैलिटी, उनका चेहरा, उनकी दाढ़ी और कपड़े इस तरह के थे कि उन पर जंच गया। सबको साथ लाने की मेहनत जरूर करनी पड़ी, पर सब अच्छा हो गया। अमजद खान सेट पर हमेशा आया करते थे, लेकिन शुरुआत के चार महीने उनका काम हुआ ही नहीं। लेकिन उन चार महीनों में सबके साथ घुल-मिल गए। उनका काम जब शुरू हुआ, तब बिहाइंड द कैमरा भी काम करने लगे। थोड़ा-बहुत बिहाइंड द कैमरा काम सचिन पिलगांवकर ने भी किया।

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