लुधियाना वेस्ट की सियासी जंग अब खत्म हो चुकी है। जीत की बधाइयों के बीच जब भास्कर संजीव अरोड़ा के घर पहुंचा, तो सिर्फ एक विजेता नहीं दिखा… वहां एक टीम थी, एक परिवार था। जिसकी नींव महिलाओं के धैर्य, समझ और भावनाओं पर टिकी थी। इस परिवार के हर सदस्य ने अपने हिस्से की जिम्मेदारी खुद उठाई- किसी ने पोस्टरों का काम देखा, किसी ने नुक्कड़ मीटिंग्स और किसी ने लोगों की चाय में अपनी बातें घोलीं। यही वजह है कि संजीव अरोड़ा की जीत को सिर्फ एक राजनीतिक जीत कहना, उस समर्पण का अपमान होगा जो चुपचाप उनके पीछे खड़ा रहा। घर की महिलाएं सिर्फ दीवारें नहीं रहीं, वो अब जन-समस्याओं की संवाहक बन गई हैं। घर की महिलाओं में से किसी ने पोस्टरों का काम देखा तो किसी ने नुक्कड़ बैठकों की कमान संभाली गुनीत अरोड़ा बहू हैं। कहती हैं- ‘हमने 3 मार्च से ही दिन की शुरुआत सुबह 6 बजे करनी शुरू कर दी थी। बच्चों को स्कूल भेजकर, हम मोहल्लों में निकल जाते थे। दिनभर समस्याएं सुनते, सुझाव लेते और रात को परिवार में मिल बैठकर उन पर बात करते। अब समझ आया कि राजनीति कितनी निजी हो जाती है, जब आप सिर्फ नेता नहीं, किसी का बेटा, बहू, मां या प|ी भी हों।’ सिटी एंकर अरोड़ा की जीत के पीछे खड़ा रहा परिवार, जिसने चुपचाप निभाई हर जिम्मेदारी संध्या केतकी गुनीत संध्या अरोड़ा उनकी प|ी हैं। कहती हैं- ‘मैं कभी भी राजनीति का हिस्सा नहीं रही। हाउसवाइफ हूं और घर-परिवार तक सीमित हूं। लेकिन, इस बार सबकुछ बदल गया। गर्मियों की छुट्टियों में बच्चों को भी वक्त कम दे पाए। दिन-रात कैंपेनिंग, बैठकों और रणनीतियों में बीतते थे। फिर भी एक संतोष था कि हम कुछ बड़ा कर रहे हैं- लोगों के लिए, शहर के लिए।’ केतकी अरोड़ा बेटी हैं। कहती हैं-‘यह सफर आत्मबोध का था। हमने पापा को हमेशा दूसरों की मदद करते देखा, लेकिन कभी महसूस नहीं किया कि जमीन पर जाकर लोगों से मिलना कितना बदल देता है। हमने महसूस किया कि जिन बातों को हम नजरअंदाज करते हैं, वही लोगों की सबसे बड़ी जरूरत होती है। पापा ने सिखाया कि सेवा और संवेदना ही राजनीति की असली भाषा है।’
पत्नी, बेटी व बहू… चुनाव नहीं लड़ा, पर संघर्ष वर्कर से कम नहीं
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