भारत के महान एथलीट मिल्खा सिंह की कहानी को निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने साल 2013 में उनकी बायोपिक ‘भाग मिल्खा भाग’ के जरिए बड़े पर्दे पर उतारा था। 12 साल बाद यह फिल्म एक बार फिर से री-रिलीज हो रही है। पहले यह फिल्म 18 जुलाई को री-रिलीज होने वाली थी, लेकिन अब यह 8 अगस्त को थिएटर में री-रिलीज होगी। राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने दैनिक भास्कर से खास बातचीत में बताया कि यह फिल्म सिर्फ एक स्पोर्ट्स पर्सन की जिंदगी की कहानी नहीं है, बल्कि यह हिंदुस्तान के बंटवारे को भी दर्शाती है। खास बात यह है कि अपनी बायोपिक के लिए मिल्खा सिंह ने सिर्फ एक रुपया लिया था। इस बातचीत के दौरान राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने फिल्म की मेकिंग से जुड़ी कई दिलचस्प बातें शेयर कीं। पेश हैं कुछ प्रमुख अंश… ‘भाग मिल्खा भाग’ एक फिल्म नहीं बल्कि एक क्रांति, एक इंस्पिरेशन थी। इसके लिए आपकी और फरहान अख्तर की जितनी भी तारीफ की जाए कम है। आप क्या कहना चाहेंगे? इस फिल्म की तो हम छोटी सी कड़ी है। कहानी तो मिल्खा जी की है। कहानी से प्रेरणा मिली, उसी को पर्दे पर उतारने की हमने कोशिश की। सबने इसमें दिल लगाकर काम किया। यह सिर्फ एक स्पोर्ट्स पर्सन की नहीं, बल्कि हिंदुस्तान के बंटवारे की कहानी है। सबसे पहले आपने मिल्खा सिंह की ऑटोबायोग्राफी गुरुमुखी में पढ़ी थी, उस समय की किस तरह की यादें हैं? मुझे गुरुमुखी पढ़ने नहीं आती थी। मेरे एक अंकल है। वे बंटवारे के बाद भारत आए थे। उन्होंने ऑटोबायोग्राफी गुरुमुखी में पढ़ी और बोले कि बेटा यह तो बहुत गहरी कहानी है। मुझे मिल्खा जी के बारे में पता था। उनके बारे में विकिपीडिया पर पढ़ा था, लेकिन वह काफी नहीं था। एक दोस्त के माध्यम से मिल्खा जी से मिला। जब उनसे चंडीगढ़ में पहली बार मिला तो भूल गया कि शाम को मेरी वापसी की फ्लाइट है। मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं अपने घर वापस आ गया हूं। मैं एक हफ्ता चंडीगढ़ में रुक गया। मुझसे पहले भी कई लोग मिल्खा जी की बायोपिक के लिए मिल चुके थे। मिल्खा जी के बेटे जीव ने कहा कि फिल्म राकेश ही बनाएंगे और हम सिर्फ एक रुपया लेंगे। किसी की जिंदगी को पर्दे पर दर्शाना सिर्फ एक काम नहीं होता, बल्कि बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है। बाकी फिल्में तो हिट और सुपरहिट होती ही हैं। यह फिल्म भी बहुत बड़ी हिट हुई, बहुत सारे नेशनल और इंटरनेशनल अवॉर्ड भी मिले। यह सब चीजें एक तरफ थीं, लेकिन अगर कोई फिल्म लोगों के जीवन का हिस्सा बन जाती है तो मैं समझता हूं कि फिल्म बनाना सार्थक हो गया। आपकी फिल्म में कभी न हार मानने वाला जो जज्बा दिखाया गया है, वह लोगों को काफी प्रेरित करता है? आपने बहुत गहरी बात कह दी। जब हम किसी कॉम्पिटिशन में भाग लेते हैं, तभी हार जीत होती है। मेरा मानना है कि अपना कॉम्पिटिशन सिर्फ खुद से होना चाहिए। इससे बेहतर और मजबूत इंसान बन सकते हैं। मिल्खा जी की कहानी वही है। वह अपने आप से जीतते हैं। इस तरह की पीरियड फिल्म बनाने में मेकिंग से लेकर कास्टिंग तक किस तरह की चुनौतियां आईं? जितनी बड़ी चुनौती होती है, उतना ही बड़ा मजा आता है। चुनौतियां तो थीं, लेकिन उनसे सीखने को बहुत कुछ मिला। जबकि यह कहानी उस समय की है, जब मैं पैदा ही नहीं हुआ था। उस चीज को दर्शाना जो आंखों देखा नहीं था, उसमें काफी रिसर्च करना पड़ा। स्पोर्ट के मामले में उतनी मेहनत नहीं करनी पड़ी, क्योंकि मैं खुद एक स्पोर्ट्समैन था। नेशनल स्टेडियम दिल्ली में ट्रेनिंग करता था। मिल्खा सिंह और दारा सिंह की कहानियां सुनता था। ट्रेनिंग के दौरान मिल्खा जी बेहोश हो जाते थे। खून की उल्टियां करते थे। हमारे समय में वो लोग हीरो थे। उस समय मिल्खा सिंह जी का लक्ष्य था कि दौड़ेंगे तो एक गिलास दूध और दो अंडे मिलेंगे। उनका लक्ष्य दुनिया बदलने का नहीं, बल्कि अपना पेट भरना था। कहीं ना कहीं इंसान दो वक्त की रोटी कमाने में पूरी जिंदगी गुजार देता है, लेकिन मिल्खा सिंह जी ने उसे ऐसा बदल दिया कि इतिहास बन गया। क्या फरहान अख्तर की जगह फिल्म में पहले अक्षय कुमार और रणबीर कपूर को कास्ट किए जाने पर विचार किया गया था? मैं पहले स्क्रिप्ट लिखता हूं, उसके बाद कास्टिंग करता हूं। एक बार किरदार समझ में आ जाए, फिर एक्टर को अप्रोच करते हैं। किरदार जब उभरा तो कई लोगों के नाम सामने आए, लेकिन एक कहावत है ना कि दाने-दाने पर लिखा है खाने वाला का नाम। इस पर तो फरहान का ही नाम लिखा था। उन्होंने ऐसी छाप छोड़ी कि किसी दूसरे एक्टर को उस किरदार में सोच भी नहीं सकते हैं। क्या यह सच है कि फरहान अख्तर का ट्रांसफॉर्मेशन देखकर मिल्खा सिंह की बेटी सोनिया बेहोश हो गई थीं? दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में शूटिंग कर रहे थे। मिल्खा जी की बेटी सोनिया जी आईं। मैंने कहा- आपको किसी से मिलवाता हूं। फरहान को देखीं तो अचंभे में पड़ गई थीं। बोलीं कि अरे पापा आप। पहली बार जब फरहान अख्तर, मिल्खा सिंह से मिले थे तो दोनों के बीच कोई चैलेंजिंग रेस भी हुई थी? प्रियदर्शनी पार्क में हम लोग सुबह 6 बजे ट्रेनिंग के लिए पहुंच जाते थे। एक बार मिल्खा सिंह जी कनाडा जा रहे थे। उनकी फ्लाइट मुंबई से थी। मैंने कहा कि सुबह हमारी ट्रेनिंग पर आइए। बहुत अच्छा लगेगा अगर आप फरहान के साथ 400 मीटर का राउंड लगाए। 80 साल की उम्र में वो दौड़े और फरहान को दौड़ने का स्टाइल सिखाए। वह कोई रेस और चैलेंज नहीं था। वह एक छोटा सा मोमेंट था जिसे हम लोग जी रहे थे। कमाल का एक और मोमेंट था जब फिल्म की रिलीज के बाद मिल्खा सिंह जी ने ओलिंपिक में पहने हुए अपने स्पाइक्स शूज फरहान को गिफ्ट किया था? इसके पीछे की बहुत प्यारी कहानी है। जब मुझे पता चला कि स्पाइक्स शूज की नीलामी हो रही है तो मैं उसे लेने पहुंच गया और 20 लाख में ले लिया। मैं चंडीगढ़ प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए गया था। उस शूज को मिल्खा जी को दिया। उस स्पाइक्स शूज को मिल्खा जी ने पहले चैरिटी के लिए डोनेट किया था। उसी स्पाइक्स शूज को मिल्खा जी ने फरहान अख्तर को दे दिया था। वह बहुत ही इमोशनल क्षण था। आपने जो एक रुपया दिया था, उसकी भी कहानी बहुत कमाल की है? मिल्खा जी 1960 में ओलिंपिक में गए थे। मैंने सोचा कि उन्हें एक रुपया उस समय का दें जब वो बहुत पीक पर थे। मैंने उस समय के रुपए को बहुत ढूंढा, फिर जाकर मिला। वह एक रुपया मिल्खा जी को दिया था। सोनम कपूर ने भी फिल्म के लिए 11 रुपए लिए थे, क्या यह भी सही है? सोनम का किरदार भले ही फिल्म में छोटा था, लेकिन उनके किरदार से ही फिल्म में टर्निंग पॉइंट आया था। जब उनको स्क्रिप्ट सुनाई तो वो अपने किरदार से बहुत प्रभावित हुईं। यह सही बात है कि उन्होंने फिल्म के लिए 11 रुपए लिए थे। आपने फिल्म की कहानी को इतनी सच्चाई और ईमानदारी से पेश किया। यह हिम्मत और सोच आपको कहां से मिली? लोग कहते हैं कि सच कड़वा होता है। मुझे लगता है कि सच से ज्यादा मीठी चीज कुछ भी नहीं होती है। लोग गिरने से बहुत डरते हैं, लेकिन जिंदगी में गिरना बहुत जरूरी है। गिरना हमारी स्वाभाविक प्रवृत्ति है। अगर आप फेलियर को गले लगा लें तो सक्सेस अपने आप आ जाएगी। अपनी गलतियों को छुपाए नहीं, बल्कि उनका सामना करें। इस तरह के दौर से हर कोई गुजरता है। कहानी दर्शकों के दिलों को तभी छूती है, जब उनको किरदार में अपनापन नजर आता है। इस फिल्म में मिल्खा सिंह के जीवन की कुछ खामियां भी दिखाई दीं, जबकि आम तौर पर लोग इससे बचते हैं? मिल्खा जी जिंदगी में उस मुकाम से गुजर चुके थे। उन्हें डर था कि उनकी खामियां अगर बाहर आएंगी, तो शायद अच्छा नहीं लगेगा। जब उन्हें मुझ पर विश्वास हो गया तो ऐसी बहुत सारी चीजें बताईं। जिसमें से बहुत सारी चीजें तो हमने पर्दे पर नहीं दिखाई क्योंकि कुछ चीजें थोड़ी व्यक्तिगत हो जाती हैं। उनसे बातचीत की 3000 घंटे की रिकॉर्डिंग मेरे पास है। जितनी बार उन्होंने अपनी कहानी सुनाई, दो जगह उनकी आंखों में आंसू आ जाते थे। पहला जब बंटवारे के समय उनकी आंखों के सामने परिवार का कत्ल हो जाता है। दूसरी बार जब रोम में ओलिंपिक के दौरान उनके हाथ से गोल्ड मेडल गिरता है। उनकी कहानी सुनने के बाद मैंने पहला सीन लिखा कि रोम ओलिंपिक में मिल्खा जी दौड़ रहे हैं। उनका कोच बोलता है कि भाग मिल्खा। जब वो पीछे मुड़कर देखते हैं तो उनका बचपन दिखता है। जो बहुत डरावना है। घोड़े पर सवार कबायली उनका पीछा कर रहा है। कबायली के तलवार से खून टपक रहा है। जब मिल्खा जी पीछे मुड़कर देखते हैं तो उसी दौरान गोल्ड मेडल गिर जाता है। फिल्म के लास्ट सीन में जब मिल्खा जी पीछे मुड़कर देखते हैं और जब उनका बचपन दिखता है तो उसमें वो मुस्करा रहे हैं। शुरुआत और आखिरी सीन लिखने के बाद मैंने बीच के सीन लिखने के लिए प्रसून जोशी को दिया। उन्होंने भी मिल्खा जी के साथ बहुत वक्त बिताया। फिल्म का संगीत काफी प्रभावशाली है। इसके गानों और म्यूजिक को लेकर आपकी क्या राय है? स्क्रीनप्ले लिखते समय म्यूजिक और गाने का क्या सार होगा, उसके बारे में लिखता हूं। जिसे संगीतकार और गीतकार निखारते हैं। मैं संगीत को सुनकर बड़ा हुआ हूं। आज की पीढ़ी गाने को देखकर बड़ी हुई है। जो सुनते हैं वो दिल में उतर जाते हैं। जब मैं फिल्मों का संगीत सुनता हूं तो उसका वॉल्यूम बढ़ाने की जरूरत नहीं पड़ती है। खुद उसकी तरह खिंचा चला जाता हूं। वही मेरी फिल्मों में भी नजर आता है। भाग मिल्खा भाग में आपका और मिल्खा सिंह जी का कैमियो भी है। इसके पीछे की क्या कहानी है? शूटिंग चल रही थी। पायलट का किरदार निभाने वाला एक्टर नहीं पहुंचा तो वह रोल मैंने कर लिया। मुझे अपनी फिल्मों में छोटी सी झलक दिखाने में मजा भी आता है। ‘रंग दे बसंती’ के आखिरी सीन में भगत सिंह के पिता के रोल में नजर आता हूं, लेकिन किसी ने मुझे नहीं पहचाना। ‘अक्स’ में भी एक परछाई है। ‘तूफान’ में फरहान के कोच का किरदार है। ‘दिल्ली 6’ में नहीं नजर आया था। रही बात मिल्खा जी के कैमियो की तो फिल्म के शुरुआत में टाइटल सीक्वेंस में कुछ फोटोग्राफ हैं। फिल्म की कहानी ट्रू लाइफ से इंस्पायर है। वह ट्रू लाइफ किसकी थी उसपर फिल्म को समाप्त करना था। इसलिए उनके दो बोल ‘ हार्ड वर्क’ के साथ लास्ट में दिखाया गया था। फिल्म को देश-विदेश में काफी सराहना मिली। क्या कोई तारीफ है जो आपको आज भी खास तौर पर याद है? नाम-पैसा तो कमा लेते हैं, लेकिन इस फिल्म से लोगों का बहुत प्यार मिला। पिछले साल अपनी फैमिली के साथ मालदीव गया था। एक छोटे से द्वीप में भी लोग हमारी फिल्म के बारे में जानते हैं। कार्ल लुईस बहुत बड़े एथलीट हैं। एक ही ओलिंपिक में चार गोल्ड मेडल जीते थे। 1991 के टोक्यो विश्व चैंपियनशिप में वे गोल्डन बैटल जीते थे। उन्होंने कहीं यह फिल्म देखी थी और उसी गोल्डन बैटल पर साइन करके मिल्खा जी को भेज दिया। जबकि मिल्खा जी से उनकी कोई जान पहचान नहीं थी। दो साल पहले जब फिल्म के 10 साल पूरे हुए, तब हमने फिल्म को साइन लैंग्वेज के साथ 30 शहरों के 30 स्क्रीन में रिलीज किया था, ताकि जो सुन और बोल नहीं सकते उन तक भी ये फिल्म पहुंचे। मैं तो चाहता हूं कि हर फिल्म इस तरह से रिलीज हो। ————————————- बॉलीवुड की यह खबर भी पढ़ें.. काजोल @51, फिल्मों में नहीं आना चाहती थीं:अजय देवगन से शादी के खिलाफ थे पिता, मिसकैरेज से सदमे में रहीं; 2011 में मिला पद्मश्री बॉलीवुड की बिंदास एक्ट्रेस काजोल आज 51 साल की हो गई हैं। वे एक फिल्मी परिवार से ताल्लुक रखती हैं। उनकी मां तनुजा अपने जमाने की मशहूर एक्ट्रेस रही हैं, जबकि उनके पिता शोमू मुखर्जी एक निर्माता-निर्देशक थे। पूरी खबर पढ़ें ….
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