‘सितारे जमीन पर’ में पहली बार 10 स्पेशली एबल्ड एक्टर्स:आमिर बोले- हम लोगों को जल्दी जज कर लेते हैं, इन बच्चों ने मुझे अलग नजरिया दिया

by Carbonmedia
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‘अगर बचपन में मेरी क्लास में कोई डाउन सिंड्रोम से ग्रसित बच्चा होता, तो शायद मैं आज एक और बेहतर इंसान होता– ज्यादा समझदार, ज्यादा संवेदनशील… और कम अहं वाला।’ ये शब्द हैं अभिनेता आमिर खान के, जिन्होंने अपनी नई फिल्म ‘सितारे जमीन पर’ में 10 स्पेशली एबल्ड एक्टर्स के साथ काम करके जिंदगी का एक नया सबक सीखा है। दैनिक भास्कर को दिए खास इंटरव्यू में आमिर ने बताया कि कैसे इन बच्चों के साथ काम करते हुए उन्होंने इंसानियत को भी नए सिरे से महसूस किया। पढ़िए इस इंटरव्यू के संपादित अंश… सवाल- स्पेशली एबल्ड एक्टर्स को चुनना, उन्हें प्रशिक्षित करना। कैसा अनुभव रहा? शायद यह पहली बार है कि इतनी बड़ी मेन स्ट्रीम में हमारे किरदार ऐसे हैं, जो इंटेलेक्चुअली डिसेबल्ड हैं या न्यूरो एटिपिकल हैं। लेकिन हमने वही प्रोसेस फॉलो किया है, जो हम अपनी हर फिल्म में करते हैं। ये एक्टर्स कास्टिंग प्रोसेस के जरिए आए हैं। फिर इन्होंने वर्कशॉप और रिहर्सल की है। 9 एक्टर्स पहली दफा कैमरा फेस कर रहे हैं। सिर्फ एक हैं, जिन्होंने 1-2 मलयालम फिल्मों में काम किया है, लेकिन उन्हें हिंदी नहीं आती। अब आप सोचिए कि अगर मुझे दूसरी भाषा में फिल्म करनी हो तो कितनी तकलीफ होगी। आमतौर पर माना जाता है कि जो इंटेलेक्चुअली डिसेबल्ड होते हैं वो शायद हमसे कमजोर हैं, वो काम नहीं कर पाएंगे। लेकिन हमारा अनुभव ऐसा नहीं रहा। सवाल- इन एक्टर्स ने आपसे बहुत कुछ सीखा होगा। क्या आपने भी स्पेशल एक्टर्स से कुछ सीखा? मुझे नहीं पता उन्होंने मुझसे क्या सीखा। लेकिन मैंने बहुत कुछ सीखा। वो जब सेट पर आते थे तो माहौल बदल जाता था। उनकी एनर्जी पॉजिटिव होती है। वो हमेशा खुश रहते हैं। उनका कोई ईगो नहीं होता। उनमें काफी धैर्य है। ये क्वालिटी हममें से कितने लोगों के पास है? जब हम फिल्म बनाते हैं तो एक्टर, डायरेक्टर, कैमरामैन कभी-कभी भड़क जाते हैं। लेकिन इस फिल्म में ऐसा एक बार भी नहीं हुआ। कोई आवाज ऊंची कर बात नहीं करता था। इन्होंने हमें बहुत सिखाया है। सवाल- फिल्म के पोस्टर पर है–सबका अपना-अपना नॉर्मल होता है। इसे थोड़ा एक्सप्लेन कीजिए? दुनिया में हर किस्म के लोग मिलेंगे। बहुत सारी चीजों में हमारे जज्बात एक जैसे है। लेकिन हम सब में कुछ न कुछ अलग चीजें होती हैं। हम सब का अपना-अपना नॉर्मल होता है। हर आदमी में कुछ चीजें होती हैं, जो किसी और को लगती हैं कि ये बड़ा अजीब आदमी है यार, ऐसे कैसे कर रहा है। तो वो उसका नॉर्मल है। हम सोसायटी में लोगों को जल्दी जज कर लेते हैं। हमें लगता है जो मुझसे थोड़ा अलग है, वो नॉर्मल नहीं है। ये बात ठीक नहीं है। आप सोचिए कि जो डाउन सिंड्रोम से पीड़ित बच्चा है उसकी परवरिश, पढ़ाई अलग होती है। उसे पार्टी में नहीं बुलाया जाता है। उसे अलग रखा जाता है। तो वह न्यूरो डाइवर्जन बच्चों के बीच ही बड़ा होता है। न्यूरो टिपिकल बच्चों से उसका आमना-सामना नहीं होता। तो ये उसके लिए गलत है। मेरी क्लास में कोई ऐसा बच्चा नहीं था, जो डाउन सिंड्रोम से पीड़ित था। अगर होता तो मैं भी अधिक संवेदनशील होता, सहानुभूति सीखता। मैं भी खुश रहना सीखता। मैं भी सीखता कि अहं अच्छी बात नहीं है। मेरा यह मानना है कि हमारे समाज को इस तरफ बढ़ना चाहिए, जहां कोई स्पेशल स्कूल न हो। सभी एक ही स्कूल में पढ़ें ताकि एक-दूसरे से सीखकर आगे बढ़ सकें। ये इंसानियत की बात है। ये फिल्म इसी बात पर रोशनी डालने की कोशिश कर रही है। तारे जमीन पर हमें रुलाती थी, ये हमें हंसाती है। गहरी बात कहती है, लेकिन हंसते-हंसाते। सवाल- यह फिल्म ओटीटी पर रिलीज नहीं हो रही है। इसका बिजनेस पर क्या असर होगा? ओटीटी से मुझे तकलीफ नहीं है। लेकिन इतनी जल्दी हम ओटीटी पर आते हैं, तो हमारे थिएटर के बिजनेस पर बुरा असर होता है। जैसे कोई कहे कि आप हमसे ये खरीद लीजिए, वरना 8 महीने बाद हम इसे खुद ही घर पर छोड़कर जाएंगे। तो आप बताइए ये कौन खरीदेगा? ये बिजनेस मॉडल मुझे पसंद नहीं आया। मैं आज जो भी हूं सिनेमा हॉल की वजह से ही हूं। मेरी ईमानदारी थिएटर के साथ है। सवाल- क्या जब आप कोई फिल्म चुनते हैं तो आप पर कोई क्रिएटिव प्रेशर होता है? जी नहीं, जब मैं स्क्रिप्ट चुन रहा होता हूं, उस वक्त मेरे जेहन में बिल्कुल ये ख्याल नहीं आता है कि कोई सोशल थीम उठाई जाए। मैं कहानियों पर दर्शकों की तरह रिएक्ट करता हूं। ऑडियंस के तौर पर अगर स्क्रिप्ट मुझे हंसाती है, रुलाती है, मेरे दिल को छू जाती है तो मैं फिल्म का हिस्सा बनता हूं। अगर फिल्म में कोई सोशल मैसेज है, तो अच्छी बात है। मैं एक एंटरटेनर हूं और मेरी जो जिम्मेदारी है, वो है आपका मनोरंजन करना। अगर आपको सोशियोलॉजी का लेसन चाहिए, तो आप कॉलेज जाते। लेकिन आप सिनेमाघर आए हैं, तो आप मनोरंजन चाहते हैं। हां, शायद मेरा नेचर ही ऐसा है कि इस तरह की कहानी के प्रति मेरा झुकाव है। लगता होगा कि मैं मैग्नीफाइंग ग्लास लेकर सोशल सब्जेक्ट ढूंढता हूं, लेकिन ऐसा नहीं है। मेरा मानना है कि फिल्म का जो पहला कदम हो, वो लेखक की कलम से होना चाहिए। न कि ऐसा कि मैं किसी लेखक को कहूं कि ऐसा कुछ लिखो और फिर वो मेरे इंस्ट्रक्शन पर लिख रहा है। सवाल- एक्शन और साउथ की रीमेक फिल्मों के बीच लीक से हटकर जो फिल्में हैं, उनके लिए क्या स्पेस कम हुआ है? देखिए ये दौर होता है। मुझे याद है जब गजनी आ रही थी, जो एक्शन फिल्म थी। उस वक्त मुझे बोला गया था कि पिछले 3-4 सालों से कोई एक्शन फिल्म चली नहीं है। तो आप गलत टाइम पर इसे ला रहे हैं। लेकिन वो फिल्म काफी चली। मुझे लगता है कि अगर कहानी अच्छी होती है तो जॉनर का इतना फर्क नहीं पड़ता है।

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