हिंदी का विरोध न करने पर संजय राउत का मराठी लेखकों पर निशाना- ‘लाडली बहनों की तरह ये लोग भी लाडले…’

by Carbonmedia
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Sanjay Raut on Hindi-Marathi Dispute: महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस सरकार द्वारा हिंदी भाषा को अनिवार्य करने के पुराने फैसले के बाद से विवाद जारी है. विवाद के बीच सरकार ने हिंदी की अनिवार्यता खत्म कर दी है, लेकिन मुद्दा अभी भी ताजा है. इस बीच उद्धव ठाकरे गुट के सांसद संजय राउत ने मराठी लेखकों और कवियों से सवाल किया है कि उन्होंने अपनी भाषा के समर्थन में आवाज क्यों नहीं उठाई?
शिवसेना यूबीटी के मुखपत्र सामना का संपादकीय आज इसी मुद्दे पर है. संजय राउत ने संपादकीय में लिखा है, “महाराष्ट्र में स्कूली शिक्षा का भट्ठा बैठ गया है. फडणवीस सरकार ने पहली कक्षा से हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में अनिवार्य किया था, जिससे स्थानीय जनता आहत है. हालांकि, सिर्फ आहत होने या हाथ मलने से क्या होगा?”
‘लाडली बहनों की तरह बन गए सरकार के लाडले कलाकार’- सामना संपादकीयसामना में आगे लिखा गया, “कुछ मराठी अभिनेताओं, लेखकों और कवियों ने विरोध के स्वर उठाए हैं, लेकिन वे भी सीमित हैं. जिस तरह से दक्षिण के अभिनेता प्रकाश राज ने वहां की सरकार और केंद्र को चेतावनी दी थी, हमारी मराठी भाषा के लिए इस तरह की मशाल लेकर कितने लोग आगे आए?”
संजय राउत ने बड़ा दावा करते हुए यह लिखा, “देवेंद्र फडणवीस और अन्य लोगों के दबाव में, तथाकथित मराठी भाषी लेखक और कलाकार मंडलियों का दम घुट गया है या सरकार के लाभार्थी बनने के चलते ‘लाडली बहनों’ की तरह ये सभी लोग ‘लाडले कलाकार’, ‘लाडले लेखक’ बन गए हैं. अब कवि हेमंत दिवटे ने इस हिंदी अनिवार्यता के विरोध में महाराष्ट्र सरकार का पुरस्कार लौटाने का फैसला किया है.”
‘पद्म पुरस्कार से सम्मानित लेखकों के मुंह सिले’सामना में लिखा गया है, “बेशक, बीजेपी काल में ‘पद्म’ पुरस्कार आदि के लाभार्थी बने ‘मराठी’ दिग्गज, जो ‘ये भूषण’ या ‘वो भूषण’ पुरस्कार से पुरस्कृत हुए हैं, वे इस हमले के खिलाफ मुंह सिलकर बैठे हैं. यानी नाना पाटेकर से लेकर माधुरी दीक्षित तक और सचिन तेंदुलकर से लेकर सुनील गावस्कर तक, सभी मराठी लोगों को इस अनिवार्यता को गंभीरता से देखने की जरूरत है, लेकिन ये सभी ठहरे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर ख्याति प्राप्त लोग. भले ही ये लोग मराठी की गोद में पैदा हुए, लेकिन अब दुनिया के बन गए इसलिए भले ही मातृभाषा पर गाज गिरे इनकी बला से.”
“कम से कम मराठी फिल्म और नाटक के कलाकारों को इस अनिवार्यता के खिलाफ आगे आना चाहिए, लेकिन वे भी नहीं हैं. मूलरूप से केंद्र जो कुछ ‘त्रिभाषा’ फॉर्मूला लाया है, वह एक पेच है और राज्यों की भाषाओं के लिए बोझ बन चुका है.”
‘गुजरात में हिंदी अनिवार्य नहीं’संजय राउत ने दावा किया कि केंद्र में बैठे शासकों ने अपने ही राज्य गुजरात में हिंदी को अनिवार्य नहीं किया. प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने खुद गुजरात की स्कूली शिक्षा से हिंदी को हटाया, लेकिन उन्होंने मुंबई-महाराष्ट्र की मराठी भाषा और संस्कृति को मिटाने के लिए स्कूली शिक्षा में हिंदी को अनिवार्य कर दिया. महाराष्ट्र जैसे राज्यों में स्कूली शिक्षा में हिंदी को अनिवार्य करने की कोई आवश्यकता नहीं है.
‘बिहार में अंग्रेजी बोलते हैं प्रधानमंत्री’सामना में पीएम मोदी पर भी निशाना साधा गया है. लिखा गया है, “जिस देश का प्रधानमंत्री बिहार की सार्वजनिक सभा में अंग्रेजी भाषण देता है और कनाडा, साइप्रस, क्रोएशिया जैसे देशों में जाकर वहां के राष्ट्राध्यक्षों से हिंदी में तारे तोड़ता है. यहां तक कि राष्ट्रपति ट्रंप से भी हिंदी में बात करता है, उस देश में हिंदी को अनिवार्य करने की कोई आवश्यकता नहीं है. चूंकि हिंदी भाषी राज्यों का राजनीति में वर्चस्व है तो वे इस वर्चस्व को दूसरों पर क्यों थोपें?

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