UP News: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) की धारा 528 के तहत किसी प्राथमिकी को रद्द करने की हाईकोर्ट की शक्ति से संबंधित कानूनी प्रश्नों को नौ-सदस्यीय पीठ को भेज दिया है. बीएनएसएस के अस्तित्व में आने से पहले यह विषय दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 482 के तहत था.
इससे पूर्व, ‘राम लाल यादव बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (1989)’ के मामले में सात न्यायाधीशों की पीठ ने व्यवस्था दी थी कि प्राथमिकी रद्द करने के लिए सीआरपीसी की धारा 482 के तहत अर्जी सुनवाई योग्य नहीं होगी और उचित उपचार यह होगा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत याचिका दायर की जाए.
न्यायाधीश अरुण कुमार सिंह देशवाल की एकल पीठ ने सात-सदस्यीय पीठ के फैसले से असहमति जताते हुए, ‘न्यायिक अनुशासन’ की भावना और ‘निर्णय किये गये मामलों पर कायम रहने’ (स्टेयर डेसिसिस) के सिद्धांत का हवाला देते हुए मामले को नौ न्यायाधीशों की पीठ को भेज दिया.
अदालत ने ‘हरियाणा सरकार एवं अन्य बनाम भजन लाल एवं अन्य (1990)’ तथा ‘निहारिका इंफ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड बनाम महाराष्ट्र सरकार एवं अन्य (2021)’ में सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों के आलोक में सात-सदस्यीय पीठ के निर्णय को ‘अप्रचलित’ पाया.
कोर्ट ने आदेश में क्या कहा?
न्यायाधीश देशवाल ने 27 मई को पारित अपने 43-पृष्ठ के आदेश में कहा, ‘यह अदालत सम्मानपूर्वक स्वीकार करता है कि ‘रामलाल यादव’ मामले में पूर्ण पीठ के निर्णय में स्थापित कानूनी सिद्धांत सर्वोच्च न्यायालय द्वारा व्याख्यायित कानून में हालिया घटनाक्रमों के कारण अब लागू नहीं हो सकते हैं.'
उन्होंने कहा, ‘फिर भी, न्यायिक अनुशासन की भावना का सम्मान करते हुए तथा ‘शंकर राजू’ और ‘मिश्री लाल’ के मामलों में ‘स्टेयर डेसिसिस’ के सिद्धांत को बनाए रखने के लिए अदालत इस मामले को नौ न्यायाधीशों वाली एक बड़ी पीठ को संदर्भित करने की इच्छुक है.'
यद्यपि एकल न्यायाधीश ने कहा कि ‘भजन लाल’ के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘रामलाल यादव’ के मामले में पूर्ण पीठ द्वारा लिये गए लगभग सभी निर्णयों पर विचार किया था और जांच के दौरान हाईकोर्ट द्वारा हस्तक्षेप के दायरे का विस्तार किया था, फिर भी उन्होंने उपरोक्त प्रश्नों को नौ न्यायाधीशों की पीठ को भेजना उचित समझा.
यदि सबसे अधिक न्यायाधीशों की पीठ की बात करें तो 1969 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के 28 न्यायाधीशों की पीठ ने विधानसभा के प्रस्ताव को रद्द कर दिया था.
वरिष्ठ अधिवक्ता दिलीप कुमार ने बताया कि 1969 में उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के दो न्यायाधीशों- न्यायाधीश जीडी सहगल और न्यायाधीश एनयू बेग- को गिरफ्तार करने का आदेश दिया था.
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उन्होंने बताया कि विधानसभा अध्यक्ष ने यह आदेश इसलिए दिया था, क्योंकि इन न्यायाधीशों ने सोशलिस्ट पार्टी के उस नेता को जमानत दे दी थी, जिसे अवमानना के लिए विधानसभा द्वारा गिरफ्तार कराया गया था.
कुमार ने बताया कि विधानसभा अध्यक्ष के आदेश के बाद 28 न्यायाधीशों की पीठ ने विधानसभा के प्रस्ताव को रद्द कर दिया था. यह किसी हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में सबसे अधिक न्यायाधीशों की पीठ थी और सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप कर हाईकोर्ट के निर्णय को सही ठहराया था.