बिहार के कटिहार जिले की कदवा विधानसभा चर्चित सीटों में से एक है. यह सीट ना सिर्फ राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रही है, बल्कि अपने सामाजिक-सांस्कृतिक और भौगोलिक परिदृश्य के कारण भी लगातार सुर्खियों में रही है. कदवा की राजनीति अक्सर बदलते समीकरणों के साथ आगे बढ़ी है.
2005 में जेडीयू और 2010 में बीजेपी ने जीत दर्ज की थी
वर्ष 2000 में यहां आरजेडी, 2005 में जेडीयू और 2010 में बीजेपी ने जीत दर्ज की थी. इसके बाद 2015 और 2020 में कांग्रेस के शकील अहमद खान ने लगातार दो बार जीत हासिल कर कांग्रेस को यहां मजबूत स्थिति में पहुंचाया. अगर इस बार एंटी इनकंबेंसी फैक्टर प्रभावी नहीं हुआ, तो कांग्रेस फिर से यहां अच्छी स्थिति में रह सकती है, हालांकि मुकाबला बेहद कड़ा होने वाला है.
कदवा विधानसभा क्षेत्र का राजनीतिक इतिहास भी काफी दिलचस्प है. इसकी स्थापना 1951 में हुई थी, लेकिन 1962 के बाद परिसीमन के चलते इसे हटा दिया गया. करीब 15 वर्षों के अंतराल के बाद 1977 में यह सीट फिर से अस्तित्व में आई. इस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति भी राजनीतिक रुख तय करने में बड़ी भूमिका निभाती है.
महानंदा और बरंडी नदियों के जलोढ़ मैदानों में बसे इस क्षेत्र में हर साल बाढ़ का संकट गहराता है. यहां की अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि पर आधारित है, जिसमें धान, मक्का, जूट और केले की खेती होती है. यहां की पहचान मखाना और मछली उत्पादन से भी है, लेकिन बार-बार की बाढ़ ने लोगों की आजीविका पर असर डाला है.
जातीय समीकरणों की बात करें तो यह इलाका पूरी तरह से विविधता से भरा है. यहां अति पिछड़ा वर्ग की आबादी लगभग 30 फीसदी है, जबकि मुस्लिम मतदाता 32 फीसदी के करीब हैं. इसके अलावा ओबीसी 17 फीसदी, अनुसूचित जाति 9 फीसदी, अनुसूचित जनजाति 5 फीसदी और सामान्य वर्ग केवल 5 फीसदी है.
2020 विधानसभा चुनाव के आंकड़ों के अनुसार कदवा में कुल 2,81,355 मतदाता थे, जिसमें से सिर्फ 60.31 प्रतिशत ने मतदान किया, जो कि हाल के वर्षों में सबसे कम मतदान प्रतिशत था. मुस्लिम बहुल इलाका होने के बावजूद, धार्मिक आधार पर मतदान का सीधा असर नहीं दिखा है, अब तक यहां से 6 हिंदू और 8 मुस्लिम विधायक चुने जा चुके हैं. 2020 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के शकील अहमद खान को 71 हजार वोट मिले थे, जबकि जदयू को 38 हजार और एलजेपी को 31 हजार वोट मिले थे.
2020 में एलजेपी की मौजूदगी ने जेडीयू के वोट काटे
एलजेपी की मौजूदगी ने जेडीयू के वोट काटे और यह कांग्रेस के लिए फायदेमंद रहा, अगर एलजेपी मैदान में नहीं होती, तो जदयू और कांग्रेस के बीच मुकाबला कहीं अधिक नजदीकी होता. 2025 में यह देखना रोचक होगा कि क्या जदयू फिर से उम्मीदवार उतारेगी या भाजपा सीट पर दावेदारी करेगी और क्या एलजेपी दोबारा तीसरा कोण बनेगी या गठबंधन की राजनीति में कोई बड़ा फेरबदल होगा.
अब सवाल यह है कि जनता का रुख इस बार किस ओर होगा? कांग्रेस के शकील अहमद खान ने पिछले दो कार्यकाल में ऐसा क्या किया है कि जनता एक बार फिर उन्हें मौका देगी? एनडीए की ओर से अगर किसी लोकप्रिय और स्थानीय मुद्दों से जुड़े चेहरे को उतारता है, तो यह मुकाबला बेहद दिलचस्प हो सकता है.
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